श्रील ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, जिन्हें विश्वभर में श्रील प्रभुपाद के नाम से जाना जाता है, एक महान आध्यात्मिक गुरु, विद्वान और इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शसनेस (इस्कॉन) के संस्थापक थे। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति और वैदिक ज्ञान को विश्व के कोने-कोने तक पहुँचाया। उनकी जीवनी भक्ति, समर्पण और आध्यात्मिकता की प्रेरणादायक कहानी है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
श्रील प्रभुपाद का जन्म 1 सितंबर 1896 को कोलकाता, भारत में एक धार्मिक वैष्णव परिवार में हुआ। उनका बचपन का नाम अभय चरण दे था। उनके पिता गौर मोहन दे ने उन्हें श्रीकृष्ण की भक्ति में रुचि लेने के लिए प्रेरित किया। बचपन में ही प्रभुपाद ने भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का आयोजन कर अपनी भक्ति का परिचय दिया। उन्होंने स्कॉटिश चर्च कॉलेज, कोलकाता से रसायन विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की, लेकिन गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन से प्रेरित होकर अपनी डिग्री स्वीकार नहीं की।

आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत
1922 में प्रभुपाद की मुलाकात अपने आध्यात्मिक गुरु श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर से हुई, जो गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के प्रमुख संत थे। गुरुजी ने उन्हें श्रीकृष्ण की शिक्षाओं को अंग्रेजी भाषा में विश्व तक पहुँचाने का आदेश दिया। इस मुलाकात ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। 1933 में उन्होंने औपचारिक रूप से दीक्षा ग्रहण की और भक्ति मार्ग पर चल पड़े।
वैवाहिक जीवन और त्याग
प्रभुपाद का विवाह राधारानी देवी से हुआ और उनके बच्चे भी थे। उन्होंने एक छोटा औषधि व्यवसाय शुरू किया, लेकिन उनकी भक्ति और वैदिक ज्ञान के प्रति लगन ने उन्हें सांसारिक जीवन से विरक्त कर दिया। 1950 में, 54 वर्ष की आयु में, उन्होंने गृहस्थ जीवन त्याग दिया और वानप्रस्थ जीवन अपनाया। 1959 में उन्होंने वृंदावन के राधा-दामोदर मंदिर में सन्यास ग्रहण किया और श्रीमद्भागवतम् का अनुवाद शुरू किया।
इस्कॉन की स्थापना और विश्व में भक्ति का प्रसार
1965 में, 69 वर्ष की आयु में, प्रभुपाद ने अपने गुरु के आदेश को पूरा करने के लिए न्यूयॉर्क, अमेरिका की यात्रा की। उनके पास केवल 40 रुपये और वैदिक ग्रंथों की कुछ प्रतियाँ थीं। कठिन परिस्थितियों और दो हृदयाघात के बावजूद, उन्होंने न्यूयॉर्क के टॉम्पकिन्स स्क्वायर पार्क में हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन शुरू किया। उनकी सादगी और भक्ति ने युवाओं को आकर्षित किया।
1966 में उन्होंने न्यूयॉर्क में इस्कॉन की स्थापना की। अगले 11 वर्षों में, उन्होंने विश्वभर में 108 मंदिर, आश्रम और सांस्कृतिक केंद्र स्थापित किए। वे 14 बार विश्व भ्रमण पर गए और हरे कृष्ण आंदोलन को वैश्विक स्तर पर पहुँचाया। उनकी शिक्षाएँ भगवद्गीता, श्रीमद्भागवतम् और चैतन्य चरितामृत पर आधारित थीं।
साहित्यिक योगदान
श्रील प्रभुपाद ने 70 से अधिक ग्रंथों का लेखन और अनुवाद किया, जिनमें भगवद्गीता यथारूप, श्रीमद्भागवतम् और श्री चैतन्य चरितामृत प्रमुख हैं। उनके ग्रंथ 76 से अधिक भाषाओं में अनुवादित हुए और विश्वभर के विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाते हैं। भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट (BBT) की स्थापना ने वैदिक साहित्य के प्रकाशन को और विस्तार दिया।

सामाजिक और आध्यात्मिक योगदान
प्रभुपाद ने भक्ति योग के साथ-साथ शाकाहारी जीवनशैली और अहिंसा के सिद्धांतों को प्रोत्साहित किया। उन्होंने हरे कृष्णा फूड फॉर लाइफ जैसे कार्यक्रम शुरू किए, जो विश्व का सबसे बड़ा शाकाहारी भोजन वितरण कार्यक्रम बन गया। भारत में, उन्होंने वृंदावन और मायापुर में भव्य मंदिरों की स्थापना की और चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाओं को पुनर्जनन दिया।
अंतिम समय और विरासत
14 नवंबर 1977 को वृंदावन में प्रभुपाद ने देहत्याग किया। उनकी मृत्यु तक इस्कॉन एक वैश्विक आंदोलन बन चुका था। आज विश्वभर में 450 से अधिक इस्कॉन मंदिर और केंद्र हैं, जो उनकी भक्ति और शिक्षाओं को जीवित रखे हुए हैं। उनकी पुस्तकें, मंदिर और भक्ति आंदोलन लाखों लोगों को प्रेरित कर रहे हैं।
निष्कर्ष
श्रील प्रभुपाद का जीवन भक्ति, त्याग और समर्पण का प्रतीक है। उन्होंने न केवल भारत बल्कि विश्व में श्रीकृष्ण की भक्ति का प्रचार किया। उनके द्वारा स्थापित इस्कॉन आज भी लोगों को आध्यात्मिकता और भक्ति के मार्ग पर ले जा रहा है। उनकी शिक्षाएँ हमें प्रेम, शांति और भगवान के प्रति समर्पण सिखाती हैं।
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